अद्भुत, रोचक, अद्वितीय, इन कहानियों और किस्सों में है इतिहास, संस्कृति, तथ्यो का संसार
Articles related to culture travel tourism history facts about Ratlam MP Rajasthan Gujrat And India
1. Mandu Tourism: मांडू नहीं देखा तो क्या देखा? इससे अद्भुत कुछ भी नहीं, एक बार आएंगे तो हो जाएंगे खूबसूरती के कायल
2. आदि गुरु शंकराचार्य से जुड़ा, 64 समाधियों और महाशिव के रहस्य से भरा है रतलाम का ये धाम - शहर के बीचों बीच आज भी है हजारों संतों का तपस्या स्थल
भाग- 1
लोगों को कुचल रहे बिगड़ैल हाथी के कारण स्थापित हुआ रतलाम
रतलाम के सबसे प्राचीन धाम का इतिहास रत्नपुरी रियासत की स्थापना से भी पुराना है। मेवाड़ के महाराज उदयसिंह के पड़पोते रतनसिंह महान वीर थे। वे पिता के साथ शाहजहां से मिलने आगरा गए थे जहां सम्राट का पसंदीदा हाथी बिगड़ गया और किसी के नियंत्रण में नहीं आ रहा था और कई लोगों को कुचल दिया। रतन सिंह ने उस हाथी को काबू में कर रोक दिया था जिसे देखकर शाहजहां इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने धराड़, रावटी, धामनोद, बदनावर, दगपरावा, आलोट, तीतरोद, आगर, नाहरगढ़, और रामगढ़िया के परगना उन्हें राज करने के लिए और महाराजा की उपाधि दे दी।
तपस्या, एकांत और साधना के लिए स्थापित हुआ मठ
उज्जैन से लेकर भानपुरा तक आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठों के साधु, संत तथा अन्य संत जन धर्म के प्रचार के लिए लगातार प्रयास कर रहे थे। उस समय घने जंगलों, गांवों के बीच पैदल सफर ही होती था। रतलाम में उस समय आदि गुरु शंकराचार्य के परम शिष्यों ने एक मठ की स्थापना की थी। इसी समय महाराजा रतन सिंह ने 1652 में रत्नपुरी राज की स्थापना की और मठ के समीप ही अपना राजमहल बनवाया। मठ का नेतृत्व तब दंडी स्वामी करते थे और यहां यज्ञ, तपश्चर्य, साधना में रत साधु,संत आकर रुकते और तपस्य करते थे। महाराजा रतनसिंह ने साधुसंतों की सुविधा के लिए मठ के समीप दो मुंह की बावड़ी का भी निर्माण करवाया। परंतु 1657 में रतन सिंह शाहजहाँ के गद्दार बेटे औरंगजेब की सेना से लड़ते हुए धर्मतपुर (धर्माठ) में लड़ते हुए युद्ध में मारे गए। उनकी पत्नी महारानी सुखरूपदे कंवर शेखावत साहिबा सती हो गईं थीं।
ऐसा होता है दंडी स्वामी का जीवन
रतलाम में स्थापित मठ के प्रमुख दंडी स्वामी होते थे और आज भी हैं। शास्त्रों में दंड को 'ब्रह्म दंड' भी कहा गया है जो विशेष योग्यता प्राप्त करने पर एक संन्यासी को प्राप्त होता है। आदि शंकराचार्य का चयन संतों ने पहले दंडी स्वामी के रूप में किया था जिसके बाद से उनके चयनित शिष्य ही इसे धारण करते आ रहे हैं। दंडी संन्यासी मूर्ति पूजा से दूर और एकांत में रहते हैं। बिना किसी बिस्तर, भौतिक साधनों के कठिन अनुशासन भरे जीवन में यज्ञ, मंत्रोचार और साधना करते हैं। दंडी संन्यासी नागा भी होते हैं या बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। बर्तनों तक का उपयोग नहीं करते और दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। खास बात है कि वे दूसरों की सहायता करने के लिए प्रतिदिन केवल सात घरों से भीख मांगते हैं और नहीं मिलने पर भूखे रहते हैं।
3. कहीं खंबे करते हैं पाप-पुण्य का हिसाब, कहीं शिवलिंग के नीचे छुपी है शिवलिंग - जानिये रहस्यों से भरे रतलाम जिले के अतिप्राचीन शिवधाम
1 हजार साल से रहस्य समेटे हैं महाकाल
रतलाम के करीब ग्राम धराड़ है जहां से गुजरती है कर्क रेखा। इसी गांव में हैं 11वीं सदी में बना महाकालेश्वर मंदिर जो ठीक रेखा पर स्थित है। तीन मंजिला मंदिर का निर्माण परमार राजाओं ने लगभग 10वीं या 11वीं सदी में करवाया था। चमत्कारी होने के साथ मंदिर रहस्यमयी भी है। इसमें जमीनी तल पर महाकाल की लगभग डेढ़ हजार साल पुरानी शिवलिंग है। जबकि जमीन से नीचे भी हैं, जिसमें पंचमुखी महादेव ऊपर वाली शिवलिंग के नीचे न जाने कब से विराजित हैं। सबसे ऊपरी तल पर साधना कक्ष है जहां प्राचीन काल में संत आकर तपस्या करते थे।
इस मंदिर का महत्व इतना है कि1982 में पुरातत्व विभाग ने मंदिर का अधिग्रहण कर लिया। माना जाता है कि रतलाम के संस्थापक महाराजा रतनसिंह धराड़ आए थे और यहीं पूजन करके रतलाम बसाया था। संत सुंदर गिरी जी महाराज 1950 में धराड़ पहुंचे थे। तब उन्होंने शिव मंदिर में जाने की इच्छा प्रकट की थी। जब वे मंदिर पहुंचे तो दुखी हुए और उन्होंने प्रण लिया था जब तक मंदिर का जीर्णोद्धार नहीं होगा तब तक वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे। इसके बाद ग्रामीणों के सहयोग से मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। इसे पहले फूटला मंदिर के नाम से जाना जाता था।
भूल भुलैया वाले विश्व प्रसिद्ध विरुपाक्ष
बिलपांक गांव में स्थित भूल-भूलैया वाला विरुपाक्ष महादेव विश्व प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर है। महाशिवरात्रि पर्व पर 48 सालों से महारुद्र यज्ञ हो रहा है। मान्यता है कि पूणार्हुति के दिन यहां नि:संतान महिलाएं खीर का प्रसाद ग्रहण करती हैं तो उन्हें संतान की प्राप्ति होती है। मंदिर भी परमार कालीन और लगभग 11वी सदी में निर्मित होकर पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है। यहां 64 खंबे मंदिर में हैं, लेकिन मान्यता है कि कभी भी कोई भी व्यक्ति इनकी गिनती नहीं लगा सकता। इस दिव्य मंदिर में भी हजारों लोगों की आस्था जुड़ी है।
गुणावाद गांव में यहां श्रद्धालुओं को पाप पुण्य की जानकारी भी मिलती है। मलेनी नदी किनारे एक पहाड़ी पर विराजित यह मंदिर भी सदियों पुराना है। मान्यता है कि उड़कर आया है। प्रचीन मंदिर के गर्भ गृह में प्रवेश से ठीक पहले दांयी व बाईं ओर 2 -2 स्तंभ के जोड़े है। दांयी ओर 2 स्तम्भ के बीच से यदि कोई निकल जाता है तो माना जाता है उस इंसान ने जीवन में पुण्य कार्य किये हैं। जो व्यक्ति बाई ओर बने 2 स्तम्भ के बीच से निकल जाता है, उसे पाप से मुक्ति मिल जाती है। इन्हें पाप और पुण्य के स्तम्भ भी कहा जाता है। बताया जाता है कि मंदिर के पास खुदाई में प्राचीन प्रतिमाएं भी मिली हैं। इसमें सास बहू के साथ के छाछ मथने की तस्वीर पत्थर पर गड़ी है। श्रद्धालु यहां बड़ी आस्था के साथ आते हैं और अपनी मनोकामना का आशीर्वाद लेते हैं।
अनादि काल से विराजित हैं अनादि कल्पेश्वर
जिले आलोट में अनादि कल्पेश्वर महादेव भी विराजित हैं, जो चमत्कारों का केंद्र है। उज्जैन के महाकाल की तर्ज पर यहां भी शाही सवारी निकलती है। भगवान अनादि कल्पेश्वर का पुराना मंदिर 1200 साल से भी ज्यादा प्राचीन है। यह मंदिर भी हजारों की आस्था का केंद्र होने के साथ चमत्कारी है। मंदिर के समीप कुंड और गोमुखी हैं, जहां प्राचीन समय में लोग स्नान करके पाप धोने आते थे। मंदिर की बनावट और शिल्पकला भी खास है।
What's Your Reaction?