उज्जैन में महाकाल का अभिषेक कर रतलाम में जिस शिवालय के पैर पखारती है शिप्रा, वहां बनेगा महाकाल का दूसरा धाम

भस्मासुर से बचने के लिए जहां भगवान शंकर दीप के नीचे छुपे.., जहां रावण के दादा पुलत्स्य ऋषी ने तपस्या की.., जहां हडप्पाकाल के अवशेष हैं, और मोक्ष देने वाली मां शिप्रा और चंबल का संगम स्थल...। चंबल और पुराणों में मोक्ष दायिनी शिप्रा नदी का संगम रतलाम जिले के आलोट क्षेत्र के ग्राम शिपावरा

Aug 5, 2024 - 18:59
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उज्जैन में महाकाल का अभिषेक कर रतलाम में जिस शिवालय के पैर पखारती है शिप्रा, वहां बनेगा महाकाल का दूसरा धाम
Sipawara Deepeshwar Mahadev Alot Ratlam

रतलाम @NEWSMPG.

जिले में स्थित वर्षों पुराने, ऐतिहासिक और चमत्कारी स्थान को भव्य नया स्वरूप मिल सकता है। आलोट स्थित शिपावरा को लेकर जिला प्रशासन ने एक वहृद कार्ययोजना तैयार कर शासन को भेजी है। शिप्रा एवं उज्जैन की सांस्कृतिक विरासत को लेकर गंभीर सीएम के रहते इसके शीघ्र ही स्वीकृत होने के आसार हैं। 

चंबल और पुराणों में मोक्ष दायिनी शिप्रा नदी का संगम रतलाम जिले के आलोट क्षेत्र के ग्राम शिपावरा में है। ठीक संगम स्थल पर टापू के समान हजारों साल पुराना शिवधाम है। लेकिन पानी के कटाव और रखरखाव के अभाव में यह कई सालों से बदहाल अवस्था में था। यहां वर्तमान में मंदिर के आसपास का स्थल जर्जर हो रहा है और टूटी रेलिंग और मिट्टी के कटाव से स्थल को नुकसान बढ़ता जा रहा है। यहां तक आने के लिए नदियों और पहाड़ियों के बीच से रास्ता भी कच्चा और पथरीला है। 

कलेक्टर ने किया निरीक्षण, बना करोड़ों का प्रोजेक्ट 

कलेक्टर राजेश बाथम ने अब इस जगह की सुध ली है और इसके लिए 23 करोड़ को प्रोजेक्ट शासन को भेजा हैं। इसके लिए पिछले दिनों कलेक्टर बाथम ने स्वयं यंहा का दौर कर अति प्राचीन दीपेश्वर महादेव मंदिर के दर्शन किए। कलेक्टर ने घाटो का निरीक्षण किया और यहां की प्राचीनता का अध्ययन कर इसके अनुरूप कार्ययोजना बनाने के निर्देश दिए थे। 

रतलाम प्रशासन ने जो कार्ययोजना बनाई है यदि वह स्वीकृत हुई तो यह आसपास के सबसे बड़ा पर्यटन केंद्र बन सकता है। इससे प्राचीन इतिहास और पर्यावरण की रक्षा के साथ रोजगार के नए अवसर भी मिलेंगे। 

ऐसा बन सकता है नया स्थान 

यदि प्रोजेक्ट स्वीकृत हुआ तो सैकड़ों किलोमीटर तक फैले टापू में शिव के चेहरे की आकृति में इको फोरेस्ट, मंदिर का जीर्णोंद्धार, नई धर्मशाला, पुजारी के रहने का स्थान और पार्किंग बनाई जाएगी। नदियों से हो रहे कटाव रोकने के लिए रेलिंग और पक्के घाट बनेंगे। लाइटिंग और सौर्दय के साथ इतिहास और सांस्कृति विरासतों को सहेजा जाएगा। रास्ते भी पक्के किए जाएंगे। 

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सात साल रीसर्च में हड़प्पाकाल के मिले हैं अवशेष 

1990 से 97 तक आलोट-सोंधवाड़ क्षेत्र की कई प्रागैतिहासिक क्षेत्रों में इतिहासकारों ने अध्य्यन किया था। राष्ट्रीय सेवा योजना पौराणिक खोज यात्रा दल में शामिल रहे डॉ. रमन सोलंकी ने बताया था कि नदी मिलन पर 3200 साल पुरानी ताम्राश्म युगीन सभ्यता के अवशेष मिले थे।

पुरावशेषों में अनेक प्रकार के लघु औजार यथा- क्रोड, लुनेट फलक, माइक्रो लिथ के साथ ही मनके, मृद्भांड, बीट्स आदि प्रमुख थे। वहां 100 फीट ऊंचा सदियों पुराना टीला भी मिला। यात्रा में उज्जैन संभाग से 80 सदस्यीय पुरातात्विक शोधार्थीं व विशेष शामिल थे जिसमें रासेयो के संभागीय समन्वयक डॉ. प्रशांत पौराणिक, डॉ. रमन सोलंकी, डॉ. राजेश मीना, डॉ. मंजू यादव समेत अन्य विशेषज्ञ थे। ऐसे में इस स्थल पर विकसित सभ्यता के हड़प्पाकालीन सभ्यता के समकालीन होने को प्रमाणित किया गया था। 

विक्रम विवि में भी हुआ अध्य्यन 

विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के आचार्य एवं कुलानुशासक डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा ने बताया था कि शिपावरा पाँच हजार वर्ष पुरातन सभ्यता के अवशेषों को समेटे हुए है। 1992 ईस्वी में सुधी पुराविद डॉ. श्यामसुंदर निगम के मार्गदर्शन में मेरे द्वारा शिपावरा क्षेत्र को लेकर किए गए समन्वेषण में विपुल पुरासामग्री का अनुशीलन किया गया था। इस कार्य में शिक्षाविद  कैलाशचंद्र दुबे, कलामनीषी रमेश सोनगरा और विवेक नागर सहभागी बने थे।

पुलत्सय ऋषि की तपोस्थली

मंदिर और आसपास आज भी कई प्राचीन समाधियाँ हैं। मंदिर के महंत रमेशपुरी गोस्वामी के अनुसार यहां के सूर्य कुण्ड के समीप रावण के दादा  श्री पुलतस्य ऋषि ने तप किया था। लोकमान्यता हैं कि भस्मासुर से बचने के लिए भगवान शिवे इस स्थल पर दीपक के नीचे छुपे थे। इतिहासकारों द्वारा की गई खुदाई में यहां से कई प्राचीन और अत्याधिक बड़े दीपक जमीन से निकले भी थे। इसी कारण इन्हें दीपेश्वर महादेव कहा जाता है। संगम-तट पर दशनामी  साधुओं की समाधियाँ भी हैं जो यहां रहकर तप, साधना करते थे और कई ने यहां जीवित समाधियां भी ली हैं। 

मराठा, परमार और नवाबों ने करवाए जीर्णोद्धार 

पुरात्तवविद डॉ. अजीत रायजादा के अनुसार दोनों नदियों के समीप बाद में पक्के घाट और मंदिरों का पुनर्निर्माण मराठा काल में हुआ। इसके पहले परमार राजाओं की इस मंदिर में गहरी आस्था थी और उनके काल में मंदिरों के अवशेषों का प्रयोग किया गया है। जीर्णोद्धार में परमारों ने मंदिर को बड़ा स्वरूप दिया था जिसके स्थापत्य एवं मूर्तिकला से यह बात सिद्ध होती है। यहाँ परमारकाल के खंडित अभिलेख के साथ देवालयों के भग्नावशेष भी हैं। इसके बाद यहां जावरा के नवाब भी आया करते थे जिन्होंने रियासतकाल में शिकारगाह भी बनवाया और पंडित तथा आने वालों के रुकने के लिए धर्मशाला भी। 

वेदों से लेकर कालीदास तक ने किया वर्णन 

यजुर्वेद में शिप्रे अवे: पय: के द्वारा शिप्रा का स्मरण हुआ है। शिप्रा का उदगम और संगम दोनों स्थल अति महत्वपूर्ण हैं। महू के कांकर बर्डी पहाड़ी से शुरू होकर शिप्रा खान, गंभीर, ऐन, गांगी और लूनी को समाहित करती हुई सिपावरा में 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल (चर्मण्यवती) में मिलती हैं। महाकवि कालिदास ने इसी संगम स्थल का सरस वर्णन मेघदूत में किया है। एक ओर खास बात है कि इस मंदिर तक का रास्ता और टीला रतलाम में है। सामने  सीतामऊ (जिला-मन्दसौर) और तीसरी ओर चौमेहला (राजस्थान) है।

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