"रतलाम की सड़कें" और "मौत का कुआं"
heavy traffic on narrow roads due to encroachment amidst pot holes, drains, digging, cows, dogs and what not. yet complains falling on deaf ears.
"मौत के कुंए" और रतलाम की सड़कों पर गाड़ी चलाने में बहुत सी समानताएं है। दोनों की तुलना की जाए तो उन्नीस बीस का फर्क होगा बल्कि रतलाम की सड़कों का सफर बीस ही साबित होगा।
मौत का कुआं मतलब मेले, ठेलों में लकड़ी के पाटों को जोड़कर एक बड़ा सा कुआं बनाया जाता है। कोई लड़का या लड़की बाइक या कार से साहस भरे स्टंट दिखाते हैं। कुएं में फरार्टे भरती इन गाड़ी के करतब देखने के लिए मौत के कुएं का मालिक टिकिट बेचकर पैसा वसूलता है। रोंगटे खड़े कर देने वाले स्टंट देख दर्शक दांतो तले उंगली दबा लेते हैं। मौत वाले कुंए में बाइक या कार स्टार्ट करने के बाद खतरा ही खतरा होता है। उसमे गाड़ी चलाने वाले शख्स की जरा सी चूक से वो उसका आखरी शो हो सकता है।
रतलाम की सड़को पर बिना टिकिट के आपको ये करतब यानि स्टंट रोज, लगभग हर गली, मोहल्ले और मुख्य सड़क पर देखने और करने को मिलता है। यहां गाड़ी स्टार्ट करते ही आपके साहस और शौर्य की परीक्षा शुरू हो जाती है। मौत वाले कुएं में एक या दो लोग अपनी गाड़ियों से करतब करते है लेकिन रतलामी सड़को पर सैंकड़ो लोग एक साथ मौत के कुंए से भी भयानक करतब करते हैं। यहां "उंगली दांतो तले नही दबती, बल्कि पैरों तले से जमीन ही खिसक जाती है ।"
ये तो रोज की बात है
पें- पें, पौं- पौं के कोलाहल के बीच कौन सा करतब-बाज किधर से प्रकट हो जाए पता नही होता। बाइक, स्कूटी और बाइक वाले तो करतब दिखाते ही हैं, आटो, मैजिक, कार, जीप, ट्रैक्टर, बस और ट्रक भी रैंगती दौड़ में भागने की कोशिश में लगे रहते हैं। कभी इधर से कट, कभी उधर से डाइव, वाहनों की भीड़ में से पतली सी गली ढूंढना और फिर टेढ़े मेढे होकर अपनी बाइक निकल लेना, मां कसम ऐसा लगता है जैसे कोई युद्ध जीत कर अगले मोर्चे के लिए निकल गए हो।
चार पहिया वाले तो करतब करते हांफते ही रहते हैं। रतलाम की चौड़ी लेकिन अतिक्रमण और बेतरतीब यातायात युक्त सड़को पर कार-जीप चलाने में पारगंत कार चालकों का हौंसला देखने लायक होता है। उनकी फुतीर्ली आंखे आगे के साथ दाएं- बाएं पीछे तक देखती रहती है। रतलाम में केवल बाएं चलने वाले नियम पर लोगों को कम ही विश्वास है इसलिए कब किधर से कोई ओवरटेक कर बाइक-स्कूटी वाला या वाली उनकी बगल से निकल जाएगा, उसका ख्याल चालक को ही रख कर तत्काल ब्रेक लगाना पड़ता है। ऐसा ध्यान नही रखा और नजर चूकी तो दो पहिया वाले के गिरने से लेकर उसे और खुद को हुए नुकसान का वहन भी बिना गलती के उसे करना ही होता है।
उसके बाद भी दो -चार "कठोर वाक्य" जो आपके कान न सुनना चाहे वो भी दनदनाते हुए कानो से टकराते हैं। यहां अगर वाक्यों का आदान प्रदान बढ़ जाए तो आगे घूंसा, मुक्का, जूता भी धनधना सकता है।
बकरा पंहुचा कसाईखाने
गड्ढे ,आवारा पशु और बीच मे रैली /जुलूस आ जाए तो इनसे पार पाने के लिए अतिरिक्त विशेष कौशल की आवश्यकता होती है। ऐसे समय मे अपने गुस्से को काबू रखना ही बड़ा साहस का काम है , "ये धैर्य और शौर्य का सयुंक्त उपक्रम होता है।" यदि कोई महिला, बुजुर्ग या नव चालक चार पहिया लेकर राममंदिर ,शहर सराय ,तोपखाना, चौमुखीपुल और कस्तूरबा नगर मेंन रोड़ जैसे इलाके में घुस जाए तो उसकी हालत ऐसी होती है, जैसे कोई बकरा गलती से कसाईखाने में पहुंच गया हो। जो काम वो पैदल ही 30 मिनिट में ही पूरा कर सकता था, उसके लिए उसके 2 घण्टे कब निकल जाएंगे, पता नही चलेगा।
ये रतलामी साहस है
खैर साहब "रतलाम के साहस का बखान तो इतिहास में दर्ज है।" प्राचीन काल मे राजा रतन सिंह ने शाहजंहा के दरबार मे पागल हाथी को काबू में कर लिया था। ऐसे में आधुनिक काल की उनकी प्रजा भी अपने साहस का प्रदर्शन कर रतलाम के" बेकाबू ट्रैफिक" में अपना वाहन और खुद को भी काबू में रखने का काम तो कर ही सकती है।
नोट - विनम्र अपील है कि रतलाम के जिम्मेदार इसे पढ़कर न दूसरे के माथे गलती मढ़ें, न अपना माथा फोड़े, बल्कि रतलाम की जनता को मौत के कुएं से बाहर निकालें।
-मुकेशपुरी गोस्वामी
लेखक - पत्रकार और रतलाम प्रेस क्लब के अध्यक्ष है
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