प्यार के लंगर में एकता की रोशनी संग मनी दिवाली ये इंसानियत का शहर जावरा है, जानिए क्यों हो रहा है वायरल
जावरा के अबूसईदी लंगर खाना में दीपावली पर सभी को खिलाया गया भोजन खाने में बनाया गया मीठा मनूहार करके खिलाया
जावरा @newsmpg।
किशोर विजवा
साम्प्रदायिक सौहार्द की अनूठी मिसाल बना जावरा का अबुसईदी लंगरखाना...
पठान टोली क्षेत्र में स्थित इस लँगरखाने को हिन्दू-मुस्लिम एकता का अनुपम उदाहरण भी कह सकते हैं।यहाँ आपको धर्म या मज़हब की दीवार ढूंढने से भी नहीं मिलेगी।
लँगरखाने पर जात-पात से ऊपर उठकर सभी आगन्तुकों को निस्वार्थ भाव से निःशुल्क खाना खिलाया जाता है। अलग-अलग मजहब और पंथ के लोग यहां एक साथ, एक पंगत में बैठ भोजन ग्रहण करते देखे जा सकते हैं। कतारबद्ध बैठ खाना खाने वाले लोगों को इस बात का जरा भी एहसास नहीं होता कि वह अपने घर से दूर कहीं ओर भोजन कर रहे हैं। क्योंकि लँगरखाने में खाना खाते समय सेवादार उनका पूरा ख्याल जो रखते हैं।
सफाई के साथ परोसा जाता है भोजन
भोजन करने बैठने से पहले जगह साफ-सुथरी कर बिछात बिछाई जाती है। फिर थाली लगाई जाकर आदर-सम्मान के साथ गरमागरम भोजन परोसा जाता है। तसल्ली से भोजन ग्रहण करने के बाद उनकी झूठी थाली भी यहां के खिदमतगार ही उठाते है और अच्छे से धोकर रखते हैं।दिलचस्प पहलू यह है कि इसका नाम भले ही अबुसईदी लंगरखाना हो, पर यहां भोजन शुद्ध शाकाहारी ही बनता है। इस दौरान साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। कहा भी गया है कि भूखे को खाना खिलाना सवाब का याने पुण्य का काम है। इसी के चलते लंगरखाने में खिदमतगार भी तन,मन से जायरीनों को बिना किसी भेदभाव के भोजन परोसने में जुटे नजर आते हैं। व्यवस्थापक व खिदमतगारों का एक ही मकसद है भूखे को भोजन कराना..!
हर रोज सैकड़ों करते है भोजन
जाति-धर्म से इनको कोई सरोकार नहीं रहता और ना ही ये लोग इसमें रुचि लेते दिखाई देते हैं। यहां खाना खाकर लोग ऊपर वाले के साथ ही लंगर खाने के खिदमतगारों का शुक्रिया अदा करना नहीं भूलते। हर रोज इस लँगरखाने में आठ सौ से लेकर एक हजार लोग खाना खाने पहुंचते हैं। हर गुरुवार इनकी संख्या बढ़कर 1800 से 2000 तक पहुंच जाती है।
त्यौहार पर मीठा भी
बड़ी संख्या में हर दिन निराश्रित, असहाय, दिव्यांग, गरीब, मजदूर, किसी बला से पीड़ित व अन्य किसी बीमारी से परेशान लोग लंगर खाना की ओर खींचे चले आते हैं। जहां आराम से भरपेट भोजन करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि यहाँ पहुंचने वालों को बेस्वाद या आधा कच्चा-आधा पक्का खाना परोस दिया जाता हो। सिकी हुई रोटी, दाल, कड़ी, आलू की स्वादिष्ट सब्जी के साथ चावल भी बनाए जाते है। सप्ताह में एक मर्तबा मीठे के रूप में जर्दा (भात) , खीर, हलवा या नुक्ती में से कोई एक आइटम जरूर बनता है। संतोषजनक बात ये कि व्यवस्थापक बाले भाई खुद खाने को चखकर उसकी गुणवत्ता परखते है।
साबिर भाई का अविस्मरणीय योगदान
वर्ष 1997 में कोटा राजस्थान के मोहनलाल मोड़क ने पूर्व एल्डरमैन साबिर भाई को संग ले इसकी शुरुआत की। बाद में इसका अबुसईदी लँगरखाना सोसायटी के नाम से रजिस्ट्रेशन हो गया। मरहूम साबिर भाई की कोशिशों के चलते छोटे से स्तर से शुरू हुआ लँगरखाना मौजूदा वक्त में भव्य रूप ले चुका है। इसका श्रेय साबिर भाई को ही जाता है। उनके प्रयासों का ही नतीजा है कि यह लंगर खाना सालों से निरंतर सुचारू रूप से चल रहा है। मरहूम साबिर भाई एल्डरमैन के अविस्मरणीय योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। वर्तमान में उनके छोटे भाई बाले खान मेव सोसायटी के अध्यक्ष पद पर काबिज होकर यहाँ की व्यवस्था देख रहे हैं। उनके मुताबिक दानदाताओं के सहयोग से इसका संचालन लगातार जारी है।
Report by
Kishor Bijwa, jaora
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