-रिजल्ट का पोस्टमार्टम- चैप्टर - 3- संघ, संगठन और सादगी से हासिल हुई सत्ता - कांग्रेस नहीं कर पाई एक भी कमी को कवर, भाजपा ने नहीं दिया एक भी मौका
- सिर्फ हार और जीत के आंकड़े नहीं, इसके पीछे के कारण जानने के लिए बहुत जानना अहम है। पीछे की मेहनत, कार्यकर्ताओं की लगन, वोट जुटाने की रणनीति, बागियों से समन्वय, भीतरघातियों से बचाव और ऐसे हथकंडे जो समीकरण में बैठे फिट।
Research Desk @newsmpg.com । पोस्ट ग्रेजुएट अधिकारी, डॉक्टर और ठेठ ग्रामीण के बीच की लड़ाई के रूप में सामने आई रतलाम ग्रामीण विधानसभा की चुनावी बिसात ने भी भाजपा को ही बढ़त दिलवाई। यहां भी त्रिकोणीय मुकाबला रहा, लेकिन दो भारी पलड़ों में भाजपा और कांग्रेस ही रही। आदिवासी रिजर्व इस सीट का इतिहास भी कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ रहा है। ऐसे में इस बार यहां क्या फैक्टर बने और बिगड़े इसे लेकर राजनैतिक विश्लेषकों के अलग-अलग मत हैं।
रतलाम ग्रामीण सीट भी जिले की उन चुनिंदा सीटों में हैं जहां कांग्रेस ने आसानी से भाजपा के वर्चस्व को टक्कर दी है। पिछले चुनाव (2018) में भीतरघात का शिकार हुई कांग्रेस ने बहुत थोड़े अंतर से सीट गंवाई थी। ऐसे में इस बार यहां के स्थानीय नेताओं को पूरी उम्मीद थी कि कांग्रेस से टिकट सही मिलने पर यह सीट इस बार कांग्रेस की होगी। दूसरी ओर भाजपा ने पिछली बार कड़े मुकाबले में भी सीट पर जीत दर्ज की थी। इस बार शिक्षक से विधायक बने दिलीप मकवाना की रिपोर्ट कार्ड में प्रोगेस गिरती दिखते ही भाजपा भी चिंता में आ गई थी। गिरते ग्राफ को संभालने के लिए भाजपा ने चुनाव के 6 महीने पहले से प्रयास शुरु कर दिए थे। इसका खासा असर नहीं दिखा तो दावेदारों के बीच रस्साकसी को रोकते हुए 2013 में 26969 वोटों से कांग्रेस की मौजूदा विधायक लक्ष्मीदेवी खराड़ी को हराने वाले मथुरालाल डामर को फिर से मैदान में उतारा गया।
विद्रोह को संभालने की कोशिश भी नहीं...
इस सीट पर कांग्रेस का टिकट घोषित होने के पहले ही गुटबाजी चरम पर आ गई थी। यहां एक महिला नेत्री, निर्दलीय लड़ने वाले डॉ. अभय ओहरी, किशन सिंगाड़, राजीव देवदा समेत दावेदार 6 महीनों से भोपाल के साथ पूरी विधानसभा में भी सक्रिय थे। माना जा रहा था कि या तो पिछली बार फ्रैक्चर और भीतरघात का शिकार हुए थावर भूरिया या इन्हीं चार में से किसी 1 को टिकट मिल सकता है। लक्ष्मणसिंह डिंडोर के इस्तीफे को कोर्ट से हरीझंडी मिलते ही पिक्चर बदलने लगी और एन वक्त पर टिकट उन्हें मिला। इसके बाद से ही स्थानीय कांग्रेस नेताओं ने खुलकर उनका विरोध करते हुए पुतले तक जलाए। इतना होने पर भी जावरा की तरह यहां टिकट बदलने की कोई कवायद नहीं हुई, न ही बागियो को ठीक से साधने की। आला कमान ने फोन लगाकर खुल कर विरोध नहीं करने की नसीहत तो दे डाली लेकिन भाजपा की तरह यहां काडर या अनुशासन का उतना महत्व नहीं होने से कार्यकर्ताओं के मन को पार्टी नहीं बदल सकी।
तेज हुई शुरुआत, लेकिन बीच में पड़ी धीमी रफ्तार
कांग्रेस का प्रचार शुरु हुआ तो रफ्तार अच्छी रही, लेकिन चुनाव संचालन में अनुभव की कमी साफ दिखी। प्रचार के गांव और रूट अटपटे होने से तय समय में सभी गांव कवर नहीं हुए। बीच के समय में सोशल मीडिया मैनेजमेंट से लेकर कार्यकर्ताओं के भ्रमण और अन्य समाजों के साथ बैठके कम होने लगी। हालांकि अंत में फिर पटरी पर लाने की कोशिश हुई, लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग गई थी। दूसरी ओर निर्दलीय प्रत्याशी ने भी जयस और अन्य संगठनों के साथ शुरुआत अच्छी की, लेकिन बीच में आते-आते यहां भी संचालन में कोई तय लाईन-लैंथ नहीं होने और प्लान आॅफ एक्शन मजबूत नहीं होने से टीम कमजोर होती गई।
दूसरे बिछाते बिसात, उसके पहले जीत लिया आधा मुकाबला
भाजपा के लिए इस सीट पर संघ ने करीब 3 महीने पहले से पार्टी के लिए मेहनत शुरु कर दी थी। अनुशांगिक संगठनों के साथ ही यहां धार, मंदसौर और महाराष्ट्र से आई टीमों ने घर-घर खासकर महिला वोटरों से एप्रौच साधने में शुरुआत में ही खेल जीत लिया। जब तक दूसरे प्रत्याशी बिसात बिछाते, तब तक भाजपा लाड़लियों और राष्ट्रवाद से प्रेरित युवाओं को साध चुकी थी। मथुरालाल डामर की सादगी और उनके प्रति लोगों की सिम्पैथी को भी भाजपा ने भी पूरी तरह भुनाया। नतीजा यही रहा कि भाजपा ने बिना किसी संशय के सीट को अपने नाम एक बार फिर से करते हुए हैट्रिक बना ली।
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