रिजल्ट का पोस्टमार्टम - चैप्टर 2  तीन बल्लमों के बीच रस्साकसी में कैसे पलटी बाजी ? लाड़ली या युवा लाड़ले कौन रहे डिसाईसिव फैक्टर 

- सिर्फ हार और जीत के आंकड़े नहीं, इसके पीछे के कारण जानने के लिए बहुत जानना अहम है। पीछे की मेहनत, कार्यकर्ताओं की लगन, वोट जुटाने की रणनीति, बागियों से समन्वय, भीतरघातियों से बचाव और ऐसे हथकंडे जो समीकरण में बैठे फिट।

रिजल्ट का पोस्टमार्टम - चैप्टर 2  तीन बल्लमों के बीच रस्साकसी में कैसे पलटी बाजी ? लाड़ली या युवा लाड़ले कौन रहे डिसाईसिव फैक्टर 
Analysis of Election Results


- जावरा विधानसभा में पल-पल बनते बदलते रहे समीकरणों की पूरी पड़ताल 

Research Desk @newsmpg ।  मध्यप्रदेश में जिन सीटों पर हार-जीत को लेकर सट्टा बाजार में सबसे ज्यादा चर्चा थी उनमें से एक थी जावरा। यहां ऐन वक्त तक तीन दावेदारों के समर्थक स्वंय को विजयी मान रहे थे, लेकिन परिणाम उल्ट साबित हुए। जानकार मानते हैं कि इसके पीछे 5 बड़े और कई छोटे- छोटे कारण हैं। 
जावरा विधानसभा में यह बात पिछले तीन चुनावों में निकलकर आई है कि यहां एक बड़ा वर्ग कांग्रेस और भाजपा के बजाय निर्दलीयों को पसंद करता है। हालांकि जावरा उन सीटों में से है जहां हर विधानसभा में अपनी ही चुनौती रही है। यहां न भाजपा न कांग्रेस न ही कोई और ये दावा कर सकता है कि यह उनकी सीट है। मुखर होकर विरोध, परिवर्तन और सेंधमारी यहां की पुरानी खासियत है। 

2013 में भाजपा ने लिए थे 56 प्रतिशत मत 

- 2013 की बात की जाए तो यहां 80 प्रतिशत मतदान हुआ था। इसमें से भाजपा के डॉ. राजेंद्र पाण्डेय को 89656 मत मिले थे जो लगभग 56 प्रतिशत थे। कांग्रेस के यूसुफ कड़पा को मिले थे 59805 यानी 37 प्रतिशत वोट। निर्दलीय आसिफ मिर्जा, गेंदालाल और नोटा ने भी डेढ-डेढ़ हजार से ज्यादा वोट काटे थे। 

2018 में कांग्रेस-भाजपा के हुए लगभग बराबर 

 2018 के चुनावों में स्थिति कांटाकस की रही। जब भाजपा के डॉ. राजेंद्र पाण्डेय को 64503 यानी 36.4 प्रतिशत और कांग्रेस के केकेसिंह कालूखेड़ा को 63992 वोट मिले यानी 36.2 प्रतिशत। मात्र 511 मतों से हार जीत हुई थी। कांग्रेस का वोट शेयर भाजपा के बराबर ही रहा। इस चुनाव में निर्दलीय श्याम बिहारी पटेल ने 13 प्रतिशत और डॉ. हमीर सिंह राठौर ने 9 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। दोनों को मिलाकर 40265 वोट थे। जबकि रघुनाथ परिवार फौजी ने भी 3436 वोट लिए थे। 

23 में दो बार से भी कम हुआ कांग्रेस का वोट शेयर 

2023 में भाजपा के राजेंद्र पांडे ने 92 हजार 019 मत मिले, यानी 45 प्रतिशत। 
कांग्रेस के वीरेंद्रसिंह सोलंकी को 65 हजार 998 मत मिले। यानी 32.3 प्रतिशत वोट। कांग्रेस का वोट शेयर पिछले दोनों बार से कम हो गया है। निर्दलीय जीवनसिंह शेरपुर ने 40 हजार 766 वोट हासिल किए यानी 20 प्रतिशत। इसके अलावा दशरथ आंजना ने 1046, दिलावर खान को 2154,  इंजीनियर विजय सिंह यादव 688, मोहन परिहार को 822, रामेश्वर डाबी 413, नोटा को 1100 मत मिले। कुल 2 लाख 3 हजार 906 रही। 

जीवनसिंह के पक्ष में बना माहौल 

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जावरा सीट पर जितनी चर्चा भाजपा, कांग्रेस के प्रत्याशियों की थी, उससे ज्यादा चर्चा थी निर्दलीय प्रत्याशी करणी सेना के प्रदेश अध्यक्ष जीवनसिंह शेरपुर की। उनकी टीम को ही नहीं क्षेत्र में अधिकांश युवाओं को भरोसा था कि जीत उनकी होगी। प्रचार के शुरुआती दौर में माहौल भी ऐसा ही बना हुआ था। इनकी टीम ने जहां सर्व समाजों के साथ अलग-अलग बैठक करके उनकी राय ली, उनसे चर्चा की, वहीं युवाओं को साथ लेकर प्रचार में भी घर-घर पंहुच की। फालियों, बस्तियों, नई आबादियों पर खास फोकस किया गया। हर वर्ग के बड़े नेताओं से भी संपर्क किया गया। बावजूद ऐेन वक्त पर ऐसी स्थितियां बनीं कि इसका पूरा फायदा नहीं मिला। 

कांग्रेस की रणनीति मजबूत, सिपाही पड़े कमजोर 

कांग्रेस ने यहां पहले हिम्मत सिंह श्रीमाल को टिकट दिया, फिर वीरेंद्र सिंह को। ऐसे में कुछ कार्यकर्ताओं का मनोबल शुरु में ही डांवाडोल हो गया। इसके बाद वीरेंद्र सिंह की टीम ने अच्छी मेहनत की, लेकिन कांग्रेस पूरी तरह संगठित नहीं दिखी। हालांकि कांग्रेस प्रत्याशी वीरेंद्रसिंह सोलंकी के साथ मजबूत रणनीति बनाई और शुरुआत में राजनैतिक जानकार भी कांग्रेस की स्थिति 2018 से भी अच्छी मान रहे थे। विभिन्न समाजों के साथ उनकी टीम ने भी बैठक की और विशेष रूप से मुस्लिम बाहुल्य शहर के वार्डों पर फोकस किया गया। कांग्रेस का अंदेशा था कि निर्दलीय द्वारा काटे जा रहे वोटों में बड़ी संख्या भाजपा समर्थित वोटों की होगी जिससे उन्हें जीतने का अवसर मिलेगा। इसी रणनीति पर काम शुरु हुआ। 

बढ़ते, गिरते, ग्राफ से भी मिली बढ़त 

राजनैतिक जानकारों का मानना है कि भाजपा के डॉ. राजेंद्र पाण्डेय की छवि 2018 की तुलना में 2023 में इस बार बेहतर थी। इसका सबसे बड़ा कारण कोविड काल के दौरान विधायक की मेहनत और घर-घर संपर्क रहा। हालांकि 2022 में शासन और कानूनी कार्यवाहियों के बाद न चाहते हुए भी विधायक की लोकप्रियता का ग्राफ कुछ कम हुआ। लेकिन आखिर 6 महीनों में ओवरब्रिज, कई गावों में पूर्ण हुए पुलिया, पुल, सड़कों, मुक्तिधामों के निर्माण और आम लोगों की समस्या की हल होने से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ फिर ऊपर हुआ। पुराने अनुभव और दशकों से पार्टी के लिए काम करने में माहिर होने से परिवार और उनके निकट लोगों ने टिकट मिलते ही चुनावी प्रबंधन में कोई कसर भी नहीं छोड़ी। 

कांग्रेस के लिए बनते-बदलते रहे समीकरण

कांग्रेस ने शुरुआत अच्छी की, लेकिन जैसे-जैसे प्रचार आगे बढ़ा, वैसे वैसे प्रत्याशी तो प्रचार में मेहनत में जुटे रहे लेकिन पीछे की टीम के कई युवाओं की सक्रियता कम होने लगी। धीमी रफ्तार के अलावा कांग्रेस ने कहीं भी महिलाओं को लेकर कोई विशेष ध्यान, प्रचार या बैठक नहीं की। खेमेबाजी के चक्कर में कई गांवों में युवाओं को रिझाने का कोई प्रयास नहीं हुआ। बैकअप टीम की सक्रियता नहीं दिखी, जिससे कमजोरी को जानने और गांव में हो रही सेंधमारी रोकने में कांग्रेस असमर्थ रही। सेंधमारी और महिलाओं की दूरी कांग्रेस को भारी पड़ी। 

और यहां भी हो गई चूंक 

निर्दलीय जीवन सिंह के लिए प्रदेश के कई जिलों के अलावा राजस्थान से भी टीम मेहनत करने आई और उन्होंने पूरे क्षेत्र में सघन संपर्क किया। अन्य समाजों के साथ बैठक, गांव-क्षेत्रवार फीडबैक, कार्यकर्ताओं के काम पर मॉनीटरिंग, शिकायतों पर नजर रखने के साथ अच्छा चुनाव लड़ा गया। लेकिन स्थानीय नेताओं की कमी के चलते मुंह पर समर्थन दे रहे नेताओं की वास्तविकता नहीं भांप सके। हालांकि कई मंडल अध्यक्षों समेत भाजपा, कांग्रेस के कुछ नेताओं ने पदों पर रहते हुए भी पार्टियों का काम नहीं किया। लेकिन ऐसा ही इनके साथ भी हुआ। कई समाजों ने प्रत्यक्ष रूप से भव्य स्वागत और बैठकों में साथ का वादा किया, लेकिन ऐन वक्त पर वोट पारंपरिक पार्टियों को कर दिया। खास कर महिला वोटरों से एप्रौच नहीं हो पाना बहुत बड़ा कारण रहा। घर-परिवार में बच्चों और पुरुषों की पसंद के बावजूद महिला वोट हासिल करने में कांग्रेस की ही तरह जीवनसिंह भी पीछे रहे। 

दिक्कतें तो रही लेकिन लाड़लियों ने दिया साथ 

भाजपा की बात करें तो सीट पर उनकी जीत को न तो आसान माना जा रहा है न ही मुश्किल। कारण कि जहां कुछ भाजपा नेताओं ने खुलकर जीवनसिंह के समर्थन दिया, तो वहीं उनके गांव के पास के कुछ नेताओं और मुख्य बाजार में प्रभाव रखने वाले नेताओं ने गुपचुप साथ दिया। मुस्लिम वोटों का भी तगड़ा ध्रुवीकरण हुआ और  कुछ वार्ड जीवन सिंह तो कुछ कांग्रेस के पक्ष में खुलकर चले गए। 

इन सब के बीच भाजपा ने स्थितियों को समय पर भांपते हुए बैकअप प्लान पर काम जारी रखा। भाजपा ने सबसे ज्यादा फोकस महिला वोटरों पर किया। पाण्डेय परिवार के अलावा भाजपा महिला मोर्चा और संघ की अलग-अलग टीमें लगातार मजबूत और कमजोर दोनों पट्टियों में महिलाओं से सीधे संपर्क में रही और लाड़ली बहना के अलावा अन्य योजनाओं का प्रभाव भी गिनवाया गया। क्षेत्र की महिलाओं में बाकि दलों की अपेक्षा महिलाओं की भाजपा के साथ पूर्व से भी सीधी कनेक्टिविटी ने भी काम किया। इसी तरह युवाओं को भी युवा मोर्चा और परिवार की नई पीढ़ी ने साधे रखा। 

भाजपा की मजबूती क्विक एक्शन टीम भी रही। इसमें शामिल नेता और कार्यकर्ताओं ने वोटिंग तक डैमेज का पता चलते ही वहां के लोगों से संपर्क करके उन्हें वापस लाने की पूरी कोशिश की। संगठन की ओर से प्राइवेट एंजेंसी को भी सतत सर्वे के लिए लगाया गया और गुजरात से आई टीम के अलावा संघ के लोग भी इससे मिले फीडबैक पर काम करते रहे। इन सबका प्रतिसाद भी पार्टी को मिला।