आदि गुरु शंकराचार्य से जुड़ा, 64 समाधियों और महाशिव के रहस्य से भरा है रतलाम का ये धाम - शहर के बीचों बीच आज भी है हजारों संतों का तपस्या स्थल
सेंव, साड़ी, सोना के लिए प्रसिद्ध वर्तमान का रतलाम और प्राचीन काल की रत्नपुरी का इतिहास भगवान महादेव और महाशक्ति से प्राचीन काल से रहस्मयी तरीके से जुड़ा है। रतलाम रियासत की स्थापना से लेकर इसके वंशजों के राज पाठ हाथ से हारने और फिर पाने तक में भगवान शिव और शक्ति की विशेष कृपा की कई सच्ची कहानियां हैं जिनके साक्ष्य आज भी जीवित हैं।
सनातन धर्म में श्रावण मास की बड़ी महत्ता है। चातुर्मास की शुरुआत गुरु पूर्णिमा के साथ हो चुकी है और अब पूरे सावन भगवान श्री महादेव और महाशक्ति की आराधना चलेगी। कम ही लोग जानते हैं कि सेंव, साड़ी, सोना के लिए प्रसिद्ध वर्तमान का रतलाम और प्राचीन काल की रत्नपुरी का इतिहास भगवान महादेव और महाशक्ति से प्राचीन काल से रहस्मयी तरीके से जुड़ा है। रतलाम रियासत की स्थापना से लेकर इसके वंशजों के राज पाठ हाथ से हारने और फिर पाने तक में भगवान शिव और शक्ति की विशेष कृपा की कई सच्ची कहानियां हैं जिनके साक्ष्य आज भी जीवित हैं। उज्जयनी और भानपुरा के बीच रत्नपुरी में आदि गुरु शंकराचार्य से लेकर कई ख्यात संत, साधुओं और साक्षात ईश्वर के कई रोचक प्रसंग आज भी जीवित हैं।
इस सावन मास हम अपने पाठकों के लिए रत्नपुरी रतलाम के ऐसे ही ऐतिहासिक, चमत्कारी स्थानों की न केवल प्रचलित कहानियां बल्कि उनके पीछे के ऐतिहासिक साक्ष्य, ठोस आधारों को इस श्रृंखला में सामने लाए।
भाग- 1
लोगों को कुचल रहे बिगड़ैल हाथी के कारण स्थापित हुआ रतलाम
रतलाम के सबसे प्राचीन धाम का इतिहास रत्नपुरी रियासत की स्थापना से भी पुराना है। मेवाड़ के महाराज उदयसिंह के पड़पोते रतनसिंह महान वीर थे। वे पिता के साथ शाहजहां से मिलने आगरा गए थे जहां सम्राट का पसंदीदा हाथी बिगड़ गया और किसी के नियंत्रण में नहीं आ रहा था और कई लोगों को कुचल दिया। रतन सिंह ने उस हाथी को काबू में कर रोक दिया था जिसे देखकर शाहजहां इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने धराड़, रावटी, धामनोद, बदनावर, दगपरावा, आलोट, तीतरोद, आगर, नाहरगढ़, और रामगढ़िया के परगना उन्हें राज करने के लिए और महाराजा की उपाधि दे दी।
तपस्या, एकांत और साधना के लिए स्थापित हुआ मठ
उज्जैन से लेकर भानपुरा तक आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित पीठों के साधु, संत तथा अन्य संत जन धर्म के प्रचार के लिए लगातार प्रयास कर रहे थे। उस समय घने जंगलों, गांवों के बीच पैदल सफर ही होती था। रतलाम में उस समय आदि गुरु शंकराचार्य के परम शिष्यों ने एक मठ की स्थापना की थी। इसी समय महाराजा रतन सिंह ने 1652 में रत्नपुरी राज की स्थापना की और मठ के समीप ही अपना राजमहल बनवाया। मठ का नेतृत्व तब दंडी स्वामी करते थे और यहां यज्ञ, तपश्चर्य, साधना में रत साधु,संत आकर रुकते और तपस्य करते थे। महाराजा रतनसिंह ने साधुसंतों की सुविधा के लिए मठ के समीप दो मुंह की बावड़ी का भी निर्माण करवाया। परंतु 1657 में रतन सिंह शाहजहाँ के गद्दार बेटे औरंगजेब की सेना से लड़ते हुए धर्मतपुर (धर्माठ) में लड़ते हुए युद्ध में मारे गए। उनकी पत्नी महारानी सुखरूपदे कंवर शेखावत साहिबा सती हो गईं थीं।
ऐसा होता है दंडी स्वामी का जीवन
रतलाम में स्थापित मठ के प्रमुख दंडी स्वामी होते थे और आज भी हैं। शास्त्रों में दंड को 'ब्रह्म दंड' भी कहा गया है जो विशेष योग्यता प्राप्त करने पर एक संन्यासी को प्राप्त होता है। आदि शंकराचार्य का चयन संतों ने पहले दंडी स्वामी के रूप में किया था जिसके बाद से उनके चयनित शिष्य ही इसे धारण करते आ रहे हैं। दंडी संन्यासी मूर्ति पूजा से दूर और एकांत में रहते हैं। बिना किसी बिस्तर, भौतिक साधनों के कठिन अनुशासन भरे जीवन में यज्ञ, मंत्रोचार और साधना करते हैं। दंडी संन्यासी नागा भी होते हैं या बिना सिले वस्त्र धारण करते हैं। बर्तनों तक का उपयोग नहीं करते और दिन में केवल एक बार भोजन करते हैं। खास बात है कि वे दूसरों की सहायता करने के लिए प्रतिदिन केवल सात घरों से भीख मांगते हैं और नहीं मिलने पर भूखे रहते हैं।
64 संतों की यहां हैं समाधि
यह रतलाम जिले का सबसे पुराना गुरु आश्रम है और यहां स्थित मूल शिवलिंग रामेश्वरम से लाई गई थी। तब यहां आबादी नहीं थी लेकिन गुरुभक्त दर्शनंो और सेवा के लिए आते थे। आश्रम में 8 पीढियों और सैकड़ों वर्षों से पूजा का दायित्व निभाने वाले व्यास परिवार के वर्तमान पंडित भूपेंद्र कुमार व्यास बताते हैं कि यहां स्थापित शिवलिंग इतना दिव्य और चमत्कारी हैं कि इतनी सदियों में हजारों साधु, संतों ने यहां बैठकर तपस्या और मोक्ष प्राप्त किया। मान्यता अनुसार जब कोई दंडी संन्यासी धरती छोड़ता है तो उसका दाह संस्कार नहीं किया जाता। शरीर का विघटन प्रारंभिक चरण में होता है और वे इस अवधि में निर्वाण प्राप्त करते हैं। संन्यासियों को समाधि दी जाती रही है। आश्रम में 19वीं सदी के प्रारंभ तक ही 64 साधुओं ने निर्वाण प्राप्त किया जिनकी समाधि आश्रम में बनाई गई हैं। आश्रम में ही 1906 में ब्रह्मलीन प्रद्युमानंद जी महाराज, 1945 में राघवानंद जी तीर्थ और 2006 में सच्चितानंद भारती जी समाधिष्ट हुए हैं। इनकी समाधियां भी आश्रम में स्थित हैं। इन समाधियों पर 64 शिवलिंग स्थापित किए गए हैं।
500 सालों से आज भी रहते हैं दंडी स्वामी
रतलाम में आज के कॉलेज रोड पर स्थित दंडी स्वामी मठ इतना अद्भुत स्थान हैं जहां पिछले लगभग 500 सालों से दंडी स्वामी विराजमान रहते हैं। यह मठ शारदा पीठ के अधीन है और सौजत्न पुल्लनारायण आश्रम, विल्वमाल, रतलाम और बनारस ज्ञानी मठ के साधु संतों का लोकप्रिय स्थान रहा है। वर्तमान में भी श्रृंगेरी मठ के दंडी स्वामी श्री आत्मानंद जी सरस्वती 2022 से यहां रहते हैं। श्रृंगेरी मठ आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक हैं और विश्व विख्यात रामेश्वर मंदिर से संबद्ध है। श्री व्यास बताते हैं कि दंडी स्वामी मठ में विराजित महादेव और महाशिक्त के चमत्कारों की हजारों कहानियां हैं। कहा जाता हैं कि यहां शिक्षा, समृद्धि, साधना, मोक्ष तक की कामना से साधु, संत ही नहीं सदियों से भक्त भी आते रहे हैं। यहां विराजित समाधियां और साधु, सन्यासियों की तपस्य स्थल होने से मठ में प्रवेश करते ही व्यक्ति को दिव्य अनुभूति होती है।
- अदिति मिश्रा
What's Your Reaction?