गाड़ी हांकन वाला राम तो झोपड़ी में बनियो स्टुडियो - अनोखे तंबूरा स्टुडियो की कहानी वीडियो में
गाड़ी हांकन वाला राम तो झोपड़ी में बनियो स्टुडियो - अनोखे तंबूरा स्टुडियो की कहानी वीडियो में
रतलाम। जरा हल्के गाड़ी हांको मेरे राम गाड़ी वाले... तंबूरे और करताल का कर्णप्रिय मद्धम स्वर और सामने झोपड़ी के चारों ओर बच्चे, महिलाएं, बड़े मंत्रमुग्ध होकर सुनते। रतलाम जिले के गांव कांगसी में ये नजारा सभी के लिए बेहद खास और गौरव से भरा है। कारण कि यहां के बेटे दीपक चरपोटा ने अपनी तरह का पहला और अनोखा तंबूरा स्टुडियो बनाया है।
https://youtu.be/ho1hFNDfVHs
ये स्टुडियो उनके घर (झोपड़ी) के एक कमरे में बना है, जहां कमरे के बाहर और अंदर की दुनिया ही जैसे अलग हो गई है। सीमित संसाधन, आर्थिक परेशानी, तकनीक न पर्याप्त शिक्षा के बावजूद दीपक ने करीब और अपने गुरु पद्मश्री प्रहलाद टिपानिया से मिले विश्वास की लौ के बल पर ये कारनामा कर दिखाया है। दीपक खुद अच्छे निर्गुणी भजन हैं। उन्होंने श्री टिपानियाजी से भजन गायकी और वादन सीखा भी है और उनके साथ देशभर में कार्यक्रम भी किए। लेकिन अपने ही गांव और जिले में स्थानीय कलाकारों को कहीं मंच नहीं मिलता दिखा तो दीपक ने भजनों को घर-घर तक पंहुचाने के लिए यू-ट्यूब चैनल बनाए। लेकिन स्थानीय कलाकारों के अच्छी क्वालिटी के वीडियो बनाने के लिए एक स्टुडियो की जरूरत थी, जहां रिकार्डिंग, एडीटिंग, सिंगिग सभी हो सकें। जिले में भी ऐसे मुश्किल से 2-3 स्टुडियो है, यहां आना, जाना और खर्च मजदूरी करने वाले कलाकारों के लिए संभव नहीं। ऐसे में दीपक ने स्टुडियो बनाने की सोची। कहीं जगह ले नहीं सकते थे, तो परिवार ने साथ दिया।
पैसा, चकाचौंध नहीं, लगन और जिद से बना स्टुडियो
https://studio.youtube.com/video/JfdNbcjuWfo/edit
दीपक या उनके साथी और परिवार भी मजदूरी ही करता है। ऐसे में पैसे या संसाधन नहीं थे। छोटी उम्र से ही मजदूरी और ड्राइवरी करते थे, इसी से पैसे बचाने लगे। परेशानी ये भी थी कि न तकनीक आती थी, न ये पता था कि स्टुडियो में क्या चाहिए। इंटरनेट पर सीखना शुरु किया और 6-7 सालों तक सीखते और एक-एक सामान लाते रहे। साउंड क्वालिटी के लिए इसे कवर किया। कंप्यूटर सिस्टम, सिंथसाईजर, रिकार्डिंग सिस्टम, माइक्स, एक्वलाईजर, मिक्सिंग टूल्स लिए और चलाना सीखा। आज उनका ये देशी लेकिन आधुनिक तंबूरा स्टुडियो बड़े स्टुडियों को भी मात दे रहा है। हालांकि आज भी इससे कमाई न के बराबर होती है, लेकिन स्थानीयों को मंच जरूर मिलने लगा है। दीपक ने अपना चैनल दीपक चरपोटा और तंबूरा स्टुडियो भी बनाया है।
छोटी सी उम्र में पद्मश्री टिपानियाजी ने थामा
दीपक बताते हैं कि वे बोलना सीखे तभी से गांव में गाए थ जाने वाले निर्गुणी भजन गा रहे हैं। बाल भजन गायक के रूप में प्रसिद्ध हो गए। बचपन से उन्हें पद्मश्री प्रहलाद टिपानिया की आवाज और गूढ़ निर्गुनी भजन आकर्षित करते थे। एक बार गांव वाले टिपानियाजी से भेंट करने देवास गए, तब दीपक 6-7 साल के थे वो भी साथ हो लिए। भोजन का समय हुआ तो दीपक भी परोसदारी करने लगे। टिपानियाजी ने जैसे ही छोटे बालक दीपक को देखा उन्हें अपनी गोद में बैठा लिया। इसके एक वर्ष बाद टिपानियाजी की भजन संध्या का आयोजन उन्हीं के गांव के पास हुआ। मंच पर टिपानिया जी के पहले दीपक से भी भजन गवाए गए। टिपानियाजी ने सुना तो मुग्ध हो गए और उन्हें शिष्य बना लिया। दीपक ने उनसे भजन गायन, वादन के साथ कबीर के आध्यात्म की शिक्षा प्रारंभ कर दी। उन्हीं मंडली में रहकर तंबूरा, करताल, हारमोनियम, वोइलिन, बांसुरी, ढ़ोलक और कई साज बजाना भी सीखे। श्री टिपानियाजी के सान्निध्य में उनके साथ मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरयाणा, महाराष्ट्र तक में कई कार्यक्रम किए। लेकिन रतलाम में अपनी मंडली के साथ कम ही प्रस्तुति दे पाते हंै। कारण है कि यहां अवसर नहीं मिलते। जो मिलते हीं उसमें सभी कलाकार मजदूरी करने हैं, जो इतना समय और मैनेजमेंट नहीं दे पाते।
अब भी लोगों का नहीं मिल रहा उतना साथ
दीपक बताते हैं कि जिले में उनकी मंडली स्थायी रूप से कार्यक्रम नहीं कर पाती। सभी मजदूरी करने वाले गरीब लोग हैं, जो इतना समय नहीं दे पाते। शासकीय या गैर शासकीय आज तक किसी संगठन से भी कोई कार्यक्रम के लिए आमंत्रण नहीं आया। परंतु उन्हें इसका कोई रंज नहीं, बस इच्छा है कि लोग स्थानीय कलाकारों और कबीर भजनों को सुनें और सराहें ताकि आने वाली यहां के गावों में सदियों से गूंज रहे अनहद के स्वर जीवित रहें।
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