"सपनों की राह में आंसू: कलेक्टर जनसुनवाई में क्यो रो पड़ीं, सागोद रोड आदिवासी छात्रावास की छात्राएं"
रतलाम के सागोद रोड स्थित आदिवासी कन्या छात्रावास की छात्राएं मंगलवार को कलेक्टर जनसुनवाई में पहुंचीं और बदहाल व्यवस्थाओं को लेकर रो पड़ीं। उन्होंने भोजन की खराब गुणवत्ता, अधीक्षिका की लापरवाही, बिस्तर और कमरों की कमी जैसी गंभीर समस्याएं बताईं।

रतलाम@newsmpg... घर से दूर पढ़ाई और भविष्य के सपनों को लेकर निकली आदिवासी बालिकाएं जब प्रशासन की अनसुनी व्यवस्था से टूट गईं, तो मंगलवार को कलेक्टर जनसुनवाई में उनकी आंखें छलक पड़ीं।
सागोद रोड स्थित आदिवासी कन्या छात्रावास में रहने वाली 9वीं से 12वीं कक्षा की छात्राएं जनसुनवाई में उस वक्त भावुक हो गईं, जब उन्होंने जिला प्रशासन के समक्ष अपनी व्यथा सुनाई। अपर कलेक्टर शालिनी श्रीवास्तव की अगुवाई में हो रही जनसुनवाई में बालिकाओं ने कहा –हम पढ़ने आए हैं, संघर्ष करने आए हैं, लेकिन यहां हालात ऐसे हैं कि जीना मुश्किल हो गया है। छात्रों ने यहाँ तक बताये की उनके परिसर में सफाईकर्मी तो दूर, झाड़ू मिलना मुश्किल है. चार साल में एक झाड़ू आता है, हमारे पास अपने आसपास सफाई रखने के लिए झाड़ू तक नहीं है।
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भोजन से लेकर बिस्तर तक – हर सुविधा बेहाल
छात्राओं ने बताया कि छात्रावास की अधीक्षिका पूरी तरह उदासीन हैं। छात्राये अपने साथ हॉस्टल में बनाने वाली दाल लेकर पंहुची थी, जिसमे कीड़े साफ़ दिखाई दे रहे थे। भोजन की स्थिति इतनी खराब है कि दाल पानी जैसी पतली, चावल अधपके, सब्जी फीकी और कच्ची होती है। रोटियां भी अक्सर जली या अधपकी दी जाती हैं। कई बार भूखे ही सोना पड़ता है।
सिर्फ इतना ही नहीं, रहने की जगह भी तंग हालात में है। 70 से अधिक छात्राएं मात्र 6 कमरों में रहने को मजबूर हैं। बिस्तर, गद्दे, चादर तक की भारी कमी है। बालिकाओं ने बताया "हमें मुश्किल से 6 चादरें दी गई हैं, बाकी जमीन पर ही सोने की नौबत है।"
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‘सुनवाई’ का दरवाजा भी बंद?
छात्राओं ने बताया कि उन्होंने कई बार शिकायत की, लेकिन आदिवासी विकास विभाग की आयुक्त रंजना सिंह ने भी उनकी पीड़ा नहीं सुनी। विभाग के अफसर लगातार चुप्पी साधे हुए हैं, जबकि बच्चियों की मानसिक और शारीरिक स्थिति पर इसका बुरा असर पड़ रहा है।
प्रशासन की संवेदनशीलता की परीक्षा
जनसुनवाई में बच्चियों की बात सुनकर अपर कलेक्टर शालिनी श्रीवास्तव ने कार्रवाई का आश्वासन दिया, लेकिन सवाल यह है कि "जब एक छात्रावास में इतनी समस्याएं हैं, और छात्राएं खुद कलेक्टर कार्यालय पहुंचकर रोने को मजबूर हैं, तो विभाग आखिर किसका इंतज़ार कर रहा है?" आदिवासी अंचलों की ये बेटियां घर-परिवार से दूर सिर्फ इस विश्वास के साथ शहरों में पढ़ने आती हैं कि एक दिन वह अपने भविष्य को रोशनी दे सकेंगी। लेकिन जब यह संघर्ष भोजन, बिस्तर और बुनियादी सुविधाओं के लिए हो जाए, तो शिक्षा का सपना कहीं टूटने लगता है।
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