चैप्टर - 4 रिजल्ट का पोस्टमार्टम -जीती हुई सीट पर कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी ये चूक, आलोट में एकतरफा भारी पड़ी भाजपा, जानिए परदे के पीछे की कहानी
सिर्फ हार और जीत के आकड़े नहीं, इसके पीछे के कारण जानने के लिए बहुत जानना अहम है। पीछे की मेहनत, कार्यकर्ताओं की लगन, वोट जुटाने की रणनीति, बागियों से समन्वय, भीतर घातियों से बचाव और ऐसे हथकंडे जो समीकरण में बैठे फिट।
रिसर्च डेस्क@newsmpg । कहतें हैं राजनीति में जहां सटीक रणनीति, अचूक कूटनीति के साथ कार्यकर्ता का भाव से भरा श्रम लग जाए, वहां कोई भी दल शून्य से हारी हुई सीट भी हथिया सकता है। इस बात को चरितार्थ करके भारतीय जनता पार्टी ने दिखाया आलोट में।
यहां कांग्रेस को बाहरी और स्थानीय मुद्दे, किसानों के लिए खाद की कमी और उसके लिए आंदोलन करते हुए जेल तक जाने से पूरा यकीन था कि सीट उनकी ही है। लेकिन उनके ही वरिष्ठ बागी नेता प्रेमचंद गुड्डू, पार्टी की अंदरूनी खींचतान, लालच, लापरवाही और भाजपा के कुशल चुनावी प्रबंधन की पांच कोणीय बिसात ने त्रिकोणीय मुकाबले में कांग्रेस को हाशिये पर ढ़केल दिया। इतना ही नहीं चुनाव के एन वक्त पर उज्जैन से आलोट आए पूर्व सांसद और प्रोफेसर चिंतामणि मालवीय को चमत्कारी जीत भी दिलवा दी।
दोनों को मिला पिता के नाम का सहारा
2013 में कांग्रेस ने इस सीट पर पूर्व सांसद प्रेमचंद
गुड्डू के बेटे अजीत बोरासी b form के जरिए मैदान में उतारे थे। अजीत को आलोट में उनके पिता के नाम और कार्यकाल से ही पहचान मिली और उन्होंने 65476 वोट बटोरे थे। भाजपा ने भी मनोहरलाल ऊंटवाल के स्थान पर इस बार केंद्रीय मंत्री थावरचंद गेहलोत के बेटे जितेंद्र गेहलोत पर दांव लगाया था। उन्हें भी पिता के नाम से पहचान ज्यादा मिली। जिन्होंने 73449 वोट हासिल करके जीत दिलवाई थी। रमेश रारोतीया, रमेश बोड़ाना, ईश्वरलाल ने 15 से 17 सौ वोट काटे थे जबकि नोटा ने 2545। इस चुनाव में पार्टी और प्रत्याशी से ज्यादा उनके पिता के काम और नाम को भुनाया गया था। इसमें भी संगठन के दम पर भाजपा ने बाजी मारी थी।
स्थानीय गरीब और दूसरे जिले के मंत्री पुत्र का मुकाबला
2018 में विधानसभा चुनाव आलोट में अलग ही समीकरण पर लड़ा गया। कांग्रेस के नेता वीरेंद्र सिंह और निजाम काजी की मेहनत से उनके साथी मनोज चावला का नाम सामने आया। इसके पहले तक दोनों दलों ने आलोट क्षेत्र के स्थानीय नागरिक को मौका नहीं दिया था। चावला स्थानीय होने के साथ बेहद साधारण परिवार से, पढ़े लिखे, सौम्य और मिलनसार युवा के रूप में पहचाना हुआ चेहरा थे। टिकट मिलते ही कांग्रेस की टीम ने इसे स्थानीय गरीब और दूसरे जिले के मंत्री पुत्र का मुकाबला बताने में कामयाबी हासिल कर ली। भाजपा ने मौजूदा विधायक जितेंद्र गेहलोत को फिर मौका दिया। संगठन के साथ खर्चे में भी आगे रही, लेकिन पहली बार स्थानीय उम्मीदवार भारी पड़ा। कांग्रेस ने 80821 और भाजपा ने 75373 वोट लिए थे। लगभग 5 हजार मतों से चावला जीत गए।
किसानों पर भारी पड़ी बहने
चुनावों के पहले खाद की हुई कमी के दौरान ताला तोड़ने के मामले में जेल तक गए विधायक मनोज चावला की लोकप्रियता का ग्राफ उस समय किसानों में ऊपर गया था। लेकिन कांग्रेस इसे ठीक से मुद्दा नहीं बना पाई। उल्टे भाजपा ने इसके बाद से किसानों को योजनाओं का लाभ देने और बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसमें भी लाडली बहनाओ को भाजपा ने आखिरी साल अलग अलग यात्रा, आयोजन आदि से पूरी तरह बांधे रखा।
टीम बंटी, कुछ पीछे हटी
चुनाव में पूर्व संसद प्रेमचंद गुड्डू का नाम आने से लेकर नाम वापसी तक, कांग्रेस आलाकमान की उन्हें बैठाने की कोई कोशिश नहीं दिखी। न ही कांग्रेस ने इस सीट पर सामने बड़ा बागी नेता होने पर भी कोई ठोस रणनीति बनाई। इसी बीच वीरेंद्र सिंह सोलंकी की जावरा से दावेदारी होने से लगभग 1 साल में आलोट के युवाओं की बड़ी टीम का फोकस जावरा हो गया। ऐसे में 18 में मेहनत करने वाले टिकट मिलने के पहले से कम हो गए। गुड्डू के मैदान में उतरने से कई पुराने कांग्रेसी भी या तो उनके साथ हो गए, या तटस्थ। दोनों का नुकसान कांग्रेस को खूब हुआ। कांग्रेस के पास प्रबंधन, अर्थ और कार्यकर्ता तीनों की कमी रही। बहरहाल कांग्रेस 33565 पर सिमट गई।
युवाओं, महिलाओ को नही मना सके गुड्डू
भाजपा ने कांग्रेस के कमजोर हुए गांवों और उन क्षेत्रों पर और मेहनत की जहां इनकी टीम जा नही सकी या बंटवारे में शांत बैठ गई। गुड्डू ने भी निर्दलीय यहां धनबल से लोगों तक पंहुचने और कार्यकर्ताओं को साधने में कमी नहीं रखी, पुराने काम भी भुनाए। मगर लाडली बहनाओं और युवा वोटर्स को उनके भाषण लुभा नही पाए। हालांकि गुड्डू ने 37878 मत लेकर कांग्रेस को पछाड़ने और आलाकमान को अपना दम दिखाने में सफलता जरूर हासिल कर ली।
इसलिए आते ही मिली जिले की सबसे बड़ी जीत
भाजपा ने सीट पर गुड्डू और चावला के सामने प्रोफेसर और पूर्व सांसद चिंतामणि मालवीय को उतारा। इसके पहले गेहलोत और मालवीय के नमो पर भी मंत्रना खूब हुई थी। ऐसे में रमेश मालवीय के निर्दलीय फॉर्म भरते ही, कांग्रेस की तरह भाजपा ने इसे हल्के में नहीं लिया। बल्कि तत्काल उन्हें मनाने के लिए भोपाल से दिल्ली तक के नेता लग गए। भाजपा ने अपने नाराज़ लोगों के ऐसा कसा की वो भी मान कर पार्टी के लिए ही काम करते दिखे। दूसरी ओर गुड्ड, कांग्रेस की लड़ाई में दोनो की हार की बात भी उड़ने लगी। घर घर मेहनत पार्टी कर ही रही थी। बाकी समीकरणों को भी भाजपा ने अपने हित में प्रचारित किया और 106762 वोटों के साथ 68 हज़ार से भी ज्यादा मतों से जीत हासिल कर ली।
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